मालवा का महान् योद्धा महलकदेव पँवार
मालवा का महान् योद्धा महलकदेव पँवार को नमन्।
चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य महाराज (ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी से लेकर)
से लेकर महाराजा महलकदेव (सन् 1305 ई.) तक परमार(पँवार) राजवंश ने मालवा को विदेशी आक्रांताओं से बचाए रखा था।
जब मुस्लिम आक्रामक अलाउद्दीन खिलजी ने देश के अनेक भागों पर कब्जा कर लिया तो भला मालवा उसकी नजरों से कब तक बचा रहता ?
फिर मालवा तो धनधान्य से संपन्न होने के साथ ही दक्षिण का द्वार (दरवाजा) था। मालवा को विजय किए बिना दक्षिण विजय उसके लिए असंभव थी।
इस पर विस्तार से डा.जे.सी.उपाध्याय ने शोध साधना के अंक में प्रकाश डाला है। (शोध साधना अंक, वर्ष 1999, अंक 14, प्रकाशक नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ, म.प्र.) अलाउद्दीन परमारों की शक्ति और तलवार की धार से भलीभांति परिचित था इसलिए उसने अपने सबसे तेज तर्राट सेनापति ऐनुल-मुल्क-मुलतानी को दस हजार घुडसवार लेकर भेजा।
महाराजा महलकदेव ने भी आवश्यक प्रबंध किए । सबसे पहले उन्होंने अलाउद्दीन की सेना को रोकने के लिए अपने भाई और प्रधान सेनापति कोका को भेजा था ।
कोका बहुत ही बहादुर और कुशल सेनापति था लेकिन भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और विजय ऐनुल मुल्क के हाथ लगी।
इस युद्ध का वर्णन करते हुए अमीर खुसरो ने लिखा है कि- जितनी दूर मनुष्य की आँखे देख सकती थी भूमि रक्त रंजीत हो गई थी।
वीर कोका की वीरता और शौर्य का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐनुल मुल्क ने कोका का सिर काटकर दिल्ली भेजा था, जहाँ उसे महल के दरवाजे के नीचे घोड़ों के पैरों से कुचला गया था।
वीर कोका के बलिदान के बाद जब ऐनुल मुल्क आगे बढ़ा तो धार में उसका सामना महलकदेव के पुत्र से हुआ। राजकुमार ने भी भीषण युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हो गया।
आखिर अंत में महलकदेव ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मांडव के दुर्ग में अपना मोर्चा जमाया। ऐनुल मुल्क ने मांडव का घेरा डाला,यह घेरा बहुत लम्बें समय तक रहा था।
आखिर वही हुआ जो होना था, मालवा के कुछ लोगो को अपनी ओर मिला लिया और किले के गुप्त मार्ग का उनसे पता लगा लिया। एक रात्रि में मुस्लिम सेना मांडव के दुर्ग में प्रवेश कर जाती है।
अचानक शत्रु के आने से भगदड़ मच जाती है । फिर भी वीर योद्धा महलकदेव ने अपने चुने हुए योद्धाओं के साथ ही रात्रि में ही दुश्मनों का सामन किया और वीरगति को प्राप्त हो गये उनकी रानियों और बच्चों ने जौहर किया। यह तारीख थी 23 नवंबर सन् 1305 ई. , कहीं-कहीं पर 25 नवंबर भी लिखा गया है।
मांडव के दुर्ग में महलकदेव का बलिदान वाला स्थान शायद वर्तमान में जहाँ रानी रुपमती का महल है । करीब 30-35 वर्ष पहले जब मैं मांडव गया था तब गाईड ने हमें बताया था।
मालवा विजय की विजय से अपार धन-संपदा के साथ हसन और उसका भाई हिसामुद्दीन भी हाथ लगे थे। मालवा से प्राप्त यही दास आगे चलकर नसिरुद्दीन खुशरोशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा था।
इसका अर्थ यह है कि महलकदेव ने पूर्व में मुस्लिम सेना को पराजित किया होगा और उनके सेनापति को बंदी बनाकर रखा होगा।
मालवा की यह विजय अलाऊद्दीन के लिए कितनी महत्वपूर्ण थी कि उसने दिल्ली में सात दिन तक जश्न मनाया था और मिठाइयाँ बांटी थी।
इस विजय पर डा.उपाध्याय ने लिखा है कि कोई भी युद्ध उद्देश्य की दृष्टि से बड़ा या छोटा नहीं होता बल्कि परिणाम की दृष्टि से छोटा या बड़ा होता है।
फरिश्ता लिखता है कि-इस विजय से दक्षिण का अवरोध टूटा, मुसलमान सेना की बाढ़ को रोकने वाला अब कोई न रहा। यह बाढ़ दक्षिण के समस्त हिन्दू साम्राज्य को बहा ले गई।
चित्रकार-श्री दिलीपसिंह परमार, बांटवा, गुजरात।
श्रेय-नरेन्द्रसिंह पँवार, गढ़ी भैंसोला
राष्ट्रीय अध्यक्ष
राजा भोज जनकल्याण सेवा समिति, रतलाम, मालवा।
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